प्रदीप शर्मा संपादक
बीते दिनों दिल्ली में आयाराम-गयाराम की तर्ज पर सेटिंग न होने और अपने ही दल के दबाव में आने से कमलनाथ द्वारा भाजपा ज्वाइन न करने की कहानी, बहुत पुरानी हो गई है। ताजा मामला यह है कि कांग्रेस द्वारा उनकी सीट पर बेटे नकुलनाथ को उतारने से पिता कमलनाथ की चिंता बढ़ गई है।
नाथ नहीं चाहते कि देश में चल रही मोदी और रामलला की लहर में भाजपा यहां किसी दिग्गज नेता को उतारकर मध्यप्रदेश में 29 में से पूरी 29 सीट जीतने का लक्ष्य प्राप्त कर ले। सो अन्य दलों में अपने संपर्कों का लाभ उठाना चाहते हैं किंतु मोदी की स्टाईल में काम कर रही भाजपा ऐन मौके पर कब क्या निर्णय ले ले, यह किसी को नहीं पता।
इसलिए अपनी अजेय सीट पर उनकी चिंता बढ़ गई है। हाल ही भाजपा की पहली सूची जारी होने पर नाथ ने राहत की अवश्य सांस ली होगी कि जिन पांच सीटों पर केसरिया दल ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे हैं, उनमें छिंदवाड़ा प्रमुख है। वे यह सोचकर भी खुश हो सकते हैं कि केसरिया पार्टी के दिग्गज नेताओं में शामिल पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को यहां मैदान में नहीं उतारा। फिर भी चिंता तो है।
वैसे भी राजनीतिक जगत में वायरल सूचनाओं पर भरोसा किया जाए तो पता चलता है कि कांग्रेस के इस गढ़ में भाजपा से कोई बड़ा नेता टिकट लेकर मैदान में आने की रिश्क नहीं लेना चाहता।
सो सवाल यह है कि 29 में से 29 सीटों का लक्ष्य पूरा करने किसे दाव पर लगाया जाए।
इन हालातों में एक बार फिर भाजपा के किसान नेता और पूर्व कृषिमंत्री कमल पटेल का नाम चर्चा में बना है कि जिस तरह अमेठी में राहुल गांधी को धूल चटाने स्मृति ईरानी सामने लाई गई थीं, ठीक इसी तरह का कुछ खेला यहां भी हो सकता है।
याद रहे कि पूर्व में मोदी सर्जिकल स्ट्राइक, धारा-370 और राम मंदिर मामले में कोर्ट के फैसले के समय ऐसी गोपनीयता बनाए रखकर राजनीतिक जगत में चौंकाने वाले फैसले ले चुके हैं।
यदि पार्टी स्तर पर ऐसा कुछ निर्णय हुआ तो हरदा विधानसभा सीट पर हालिया 7-8-6 मतों से हार के बावजूद पूर्व कृषिमंत्री कमल पटेल को मैदान में लाया जा सकता है। यूं भी कुछ वर्ष पूर्व श्री पटेल स्वयं छिंदवाड़ा के गढ़ में जाकर अपनी चुनौती पेश कर चुके थे। मगर तब चुनावी समय न होने से कोई खेला नहीं हुआ।
यह स्मरणीय रहे कि ढाई दशक पूर्व युवा नेता कमल पटेल को कांग्रेस के गढ़ हरदा विधानसभा क्षेत्र में पहली बार टिकट देकर दिग्गज नेता विष्णु राजौरिया के सामने लाया गया था। और इसके बाद 25 साल तक यहां कांग्रेस की मंशा सदैव अधूरी रही। राजनीति कब क्या हो जाए कहना मुश्किल है, मगर हालात और समीकरण कुछ अलग कहानी बयां करते हैं।