प्रदीप शर्मा संपादक
हाल ही किसानों की मांगों को लेकर शुरू हुए नईदिल्ली कूच अभियान को हरियाणा की बार्डर पर रोके जाने दौरान मीडिया में कुछ संवेदनशील तस्वीरें और वीडियोज़ सामने आए हैं। यदि यह सही हैं तो ये हमारी सांस्कृतिक विरासत को हिला देने वाली चित्रकारिता है। मीडिया में चल रही ऐसी हर चित्रकारिता को हर हाल में रोका जाना चाहिए।
भारतीय संविधान में अपनी हर न्यायपूर्ण मांगों को लेकर सभी वर्गों और संगठनों को शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का अधिकार दिया गया है। किसान आंदोलन को भी अपनी मांगें मनवाने के लिए इससे इतर अन्य कोई मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।
इस आंदोलन के पहले चरण और दूसरे चरण में समुदाय विशेष तलवार लहराती तस्वीरें दिल हिला देने वाली है। वो इसलिए कि यह आंदोलन कोई हिंदू वर्सेस सिक्ख, या अन्य वर्सेस सिक्ख और न ही सिक्ख वर्सेस भारत सरकार नहीं, बल्कि यह केवल किसान और भारत सरकार के बीच कुछ मांगों का मामला है जिसे शांतिपूर्वक वार्ता से हल करने की पूरी गुंजाइश है। मगर आंदोलन के बीच किसी निहंग से तलवारबाजी का प्रदर्शन सांप्रदायिक रंगत देने की कोशिश ठीक नहीं थी। अभी भी कुछ ऐसी हरकतें किए जाने से इसके देश भर में दुष्परिणाम आने का खतरा है। इसलिए किसान आंदोलन को किसान आंदोलन ही रहने दो, कोई और नाम न दो।
यहां बता दें कि भारतीय समाज सिक्ख धर्म और निहंगों का सकारात्मक इतिहास कई वर्षों पुराना है। अपने धर्म को बचाने के लिए हर हिंदू परिवार से एक सदस्य सिक्ख और निहंग बनते आए हैं जिन्होंने अपने प्राण न्यौछावर किए हैं। हमें 1984 में हुए देशव्यापी राजनीतिक दंगे की पृष्ठभूमि में किसान आंदोलन को ऐसा कोई भी सियासी अथवा सांप्रदायिक रंग देने से बचना होगा। किसान हमारे धरतीपुत्र हैं और अन्नदाता हैं, बस इसे और कोई रूप न दिया जाए।