प्रदीप शर्मा संपादक
लोकसभा चुनाव 2024 में एक अदद सवाल बना हुआ था कि यदि भाजपा से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी हैं तो विपक्ष में वह कौन सा चेहरा है जो इस बड़े और सम्मानित पद पर विराजकर सुशोभित करेगा।
-राजनीति का खेला –
सो चुनावी अंतिम चरण आने के ठीक पूर्व इंडी गठबंधन से एक नेता के नाम पर परोक्ष रूप से सहमति जताकर सोची-समझी रणनीति के तहत खेला कर दिया। माजरा बस इतना है कि इस चरण में यादव बहुल उत्तरप्रदेश व बिहार सहित अन्य राज्यों में खेला हो जाए। साथ में यह भी कि सामने दिखती और स्वयं को खिचड़ी दल की सरकार में फंसने की जगह किसी कद्दावर युवा नेता को भविष्य में लाईन से हटा सकें।
-लकीर बनने से पहले कट गई-
जबकि यह नेताश्री पहले भी कई बार अपनी महत्वाकांक्षा अपने राज्य तक ही जताते आए हैं। मगर इस जोखिम भरे चुनाव में उन्हीं का नाम सामने लाकर उनकी आगे की लकीर पहले ही काट दी। और भावी राजनीति का एक खेला हो गया।
-संसदीय भावना के विपरीत है परंपरा-
हालांकि नेता प्रोजेक्ट करने की परिपाटी हमारी संसदीय प्रणाली के विपरीत है। मगर भारत के संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देने वाले सभी प्रमुख दलों के लिए यह परंपरा देश की रचना के साथ ही चलन में आ गई थी, जब फिरंगियों के खिलाफ लोहा लेने बड़े मकसद के लिए सभी दल एक साथ थे। मगर इन्होंने व्यवस्था तो चुनी संसदीय, और कार्य-व्यवहार में अमेरिकन पैटर्न पर अपनाया।
-सत्ताधारी दल की नीति ही चली-
– नए राष्ट्र का गठन होने के बाद ये दल अलग-अलग हो गए। इनमें शामिल समाजवादी और कुछ साम्यवादी विचारधारा के दलों ने अपनी अलग राह चुनी। इसमें यहां विचारधारा तो एक थी मगर कभी किसी को एक नेता के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया। फिर चाहे वहां कांग्रेस के जवाहरलाल नेहरू से अलग विचार रखने वाले संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर, महान समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया हों या ऐसी अनेक हस्तियां। बस वहीं से विचारधारा की लड़ाई एकात्म नेता वाली पार्टी के समक्ष पिछड़ती गईं।
-याद रहे कि तब भारतीय गणतंत्र की संसदीय प्रणाली के विपरीत कांग्रेस ने एक चेहरे को आगे कर चुनाव लड़े और जीतकर अपनी सरकार बनाई।
– भाजपा ने राह पकड़ी –
– कालांतर में अखिल भारतीय स्तर पर यही परंपरा अन्य दलों विशेषकर भारतीय जनता पार्टी ने अपनाई और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं व लालकृष्ण आडवाणी जैसे कुशल संगठकों की बदौलत देश की सत्ता में आए।