प्रदीप शर्मा संपादक हृदयभूमि
शरद पूर्णिमा की इस रात्रि में जब अमृत बरसेगा तब विचारों के ढेर-सारे बारूद को सुलगाने के लिए हरदा में कोई माचिस नहीं है। आज एक घोर संकट की घड़ी यह है कि मंदिरों में दीप और मजारों में अगरबत्ती जलाने के लिए कोई बारूद भरी एक माचिस तो लाकर दिखाए।
यहां सवाल बारूद का नहीं है।
न तो कभी हमें जरूरत है बारूद की और न ही किसी विस्फोट की मगर इसके रख-रखाव में तो जिम्मेदार लोगों का कोई दायित्व भी है। बस सीधा उठाकर आदेश हो गया – खटाखट, खटाखट। बस सवाल खड़े होते हैं। ऐसी सारी बातों पर जो जनसामान्य के लिए शायद हितकारी नहीं। यूं भी बैरागढ़ फैक्ट्री में महाब्लास्ट कांड के बाद किसी की भी तमन्ना नहीं कि वह आतिशबाजी कर खुशी मनाए। मगर सूने घरों को रोशन करने दिए जलाने की जरूरत तो है ही।
बैन का दुष्परिणाम –
बैरागढ़ के ब्लास्ट कांड के बाद बारूद के कारोबार पर लगे बैन का दुष्परिणाम यह हुआ कि यहां काम करने वाले अनेक कामगारों के परिवार झुलस गए। आज हालात यह हैं कि जिले में फटाके तो दूर धूप-बत्ती जलाने के लिए माचिस नहीं है। अपुष्ट सूत्रों का भरोसा करें तो यहां जो भी माचिस मिल रही है उन्हें गुणवत्ता के मान से रिजेक्ट है किया जा सकता है। वह आज यहां ब्लैक में मिल रही है।
यहां हर जगह सिर्फ और सिर्फ यही बहाना बनाया जा रहा है।
तो विचार का बारूद ही जरूरी –
छोड़िए इन सब बातों को फटाका फैक्ट्री में हुए महाविस्फोट की घटना का आरोपी तो सुप्रीम से जमानत लेकर बाहर भी आ गया। उनके कर्म वो ही जानें। मगर क्या दैनिक जरूरत की छोटी-छोटी माचिस भी न मिल पाए। याद रहे कि अब मंत्रों से अग्नि प्रज्ज्वलित करने वाले ऋषि यहां नहीं है/ और न यह कला सबको आती है। इसलिए प्रशासन के आदेश के परिप्रेक्ष्य में अब हमें अपने दिलों में ही अग्नि को जलाए रखना होगा।
अभी सिर्फ इतना ही! कहना है।