प्रदीप शर्मा संपादक
भारत से विदेश जाकर बसे एक विद्वान महाशय ने रंगों के आधार पर भारतवंशियों की नस्ल जानने का अनोखा प्रयास किया है। इनके द्वारा आकलन कर देश के लोगों के बीच विभाजन रेखा खींचने से विवादों का बाजार गर्म हो गया है। उनके इन प्रयासों का क्या मकसद है यह तो भविष्य के गर्भ में है, मगर चुनावी दौर में ऐसे आकलन करने पर सवालिया निशान तो लगेंगे ही।
बताते हैं कि अमेरिका जाकर बसे इन विद्वान महोदय ने अपना मूल नाम बदलकर अंग्रेजियत में लपेट दिया है। मगर क्या इससे उनकी नस्ल बदल जाएगी, यह सवाल अभी जिंदा है। इन्हें देश की एक राजनीतिक पार्टी के युवराज का सलाहकार बताया जाता है। ऐसे में यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि इनकी सरकार बनी तो नए मठाधीशों की राज-नीति रंग भेद के आधार पर तय होगी।
याद रहे कि बीती सदी दौरान अफ्रीका में रंग-भेद की नीति के विरुद्ध नेल्सन मंडेला ने बड़ा आंदोलन चलाकर गोरों की सरकार को हटाया था। वहां तब की सरकारें काले और गोरे के आधार पर भेद कर नीतियां बनाती आई थीं। जिसे मंडेला के नेतृत्व ने उखाड़ फेंका। मगर इन नए विद्वानों की राय से लगता है कि कालचक्र का पहिया अफ्रीका महाद्वीप से घूमकर दक्षिण एशिया के प्रायद्वीप में तो नहीं आ रहा। आपको बता दें कि यहां एक ही परिवार में गौर और श्याम वर्ण के भाई भी रहते हैं। तब इनके बीच ऐसी विभाजन रेखा कितनी काम आएगी।
बहरहाल इनके प्रयासों से देश में गर ऐसा हुआ और इसकी लपट दुनिया भर में चली तो सत्यनारायण से असत्यनारायण बने विद्वजन मुंह छिपाकर कहां जाएंगे।