हिंदी पत्रकारिता दिवस : क्यों गोदी और बिकाऊ मीडिया के दोराहे पर पत्रकारिता
जबकि घोर आंधी के दौर में जलती रही इसकी मशाल
प्रदीप शर्मा संपादक।
आंधी में भी जलती रही हिंदी पत्रकारिता की वो मशाल, जिससे डरकर अपना असबाब छोड़कर भाग खड़े हुए थे फिरंगी। आज 198 साल बाद आए हिंदी पत्रकारिता दिवस के इस पावन मौके पर ऐसी बातें याद आना लाजिमी है। क्यों ? क्योंकि वर्तमान दौर में इसके आंचल पर गोदी और बिकाऊ मीडिया नाम के दो अलग-अलग दाग लगने लगे हैं।
सवाल तो हैं-
सवाल है कि खरी-खरी बोलने वाले रवीश कुमार जी क्या आज बिकाऊ हैं, या बिना उकसाए सबके सामने हकीकत लाने वाले सुधीर चौधरी गोदी मीडिया हैं।
हकीकत क्या है-
इसका कारण क्या है। क्या हमारी पत्रकार जमात बिकाऊ हो गई है, या हमारे साथी किसी की गोद में बैठकर कार्य करने लगे हैं। सही बात तो यह है कि आज के युग में जब फिरंगी सामने नहीं है, तब देश और समाज के दुश्मनों के खिलाफ लिखना बड़ा जोखिम हो गया है। ऐसी घड़ी में निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा देश के बड़े पत्रकारों और संस्थानों को बदनाम करना विशेष शगल बन गया है। इस दौर में बड़ी लागत, परिश्रम के बाद प्रकाशित अखबार कोई दो रुपए में नहीं खरीदता और वही विद्वजन उल्लूगल ज्ञान के आधार पर आपकी नीयत व विश्वसनीयता पर सवाल उठाएं तो चिंता होना स्वाभाविक है।
मैदान में काम की चुनौती-
आज के इस दौर में यदि पत्रकार जगत के साथी यदि मिलावट करने वाले व्यापार, घूस लेने वाले अफसर और समाज व देश का बंटाढार करने कमर कसकर सामने आ जाएं तो उन पर भी ऐसे तमगे लगना स्वाभाविक है। सो हिंदी पत्रकारिता दिवस के मौके पर इसका प्रतिकार करने की घड़ी आज हमारे सामने है।
जवाब दें –
इसके अलावा एक और सवाल है कि बड़े अंग्रेजी घरानों की पत्रकारिता हिंदी के अखबारों और पत्रकारों को हेय दृष्टि से देखती है। क्या आज हम भी स्तर बढ़ाकर जवाब नहीं दे सकते। बड़े खेद की बात है कि अंग्रेजी विश्लेषक बड़े पत्रकार लिख दें कि मोदी आ रहा है तो सही, यदि यह बात देश में बैठा हिंदी पत्रकार लिख दे तो बिकाऊ या गोदी। हमें बस यही भरोसा बनाना है ताकि हिंदी पत्रकारिता पर लांछन लगाने वालों के मुंह पर ताले लग जाएं। क्या आप आप सभी हैं हमारे साथ, और सबको दें जवाब इस मंच पर।