प्रदीप शर्मा हरदा।
जिंदगी एक ख्वाब थी/
और जिंदगानी भी/
कोई तो मेरे साथ चलो!/
-गर हम चल पड़े तो
निकल पड़ेगी दुनिया घरों से/
मगर अफसोस कि
कोई मेरे साथ नहीं/
-अब आती नहीं है
कभी, कहीं, किसी की आवाज
छोड़िए वो अपना तो नहीं/
-कल तुम थे जहां
और आज हूं मैं वहां/
मगर फिर भी
किसी की आवाज आती तो नहीं!
-चलिए हम बैठकर
यहां गम मिटाएं अकेले,
यहां तो मौत भी आती नहीं।