बांग्लादेश : भीड़ में तुम मिले, ऐसा लगा कि कोई अपना मिला
थी बड़ी सर्द रातें, तुम मिले तो लगा गर्म हवा का झोंका मिला
प्रदीप शर्मा संपादक हृदयभूमि :
भीड़ थी बड़ी,
इसमें तुम मिले,
तो मुझे ऐसा लगा,
कि कोई अपना सा मिला!
थी बड़ी ठंडी रातें,
तुम मिले मुझे तो लगा,
एक गर्म हवा का झोंका मिला!
इस दुनियावी अखाड़े में था कोई नहीं,
क्या पता कौन कहां-कहां मिला।
जाने क्या हो गया,
मेरे देश में जहां मिले थे सब एक होकर
फिर कौन कहां मिला कब मिला।
इस जहां में अब तो सारा रिश्ता कतरा, कतरा हो गया।
– किसी शायर की ये दर्द भरी पंक्तियां आज मौजू हैं, हमारे ही आसपास के मुकाम पर जहां आज कोई किसी का अपना नहीं रहा। ऐसे ही कुछ हालातों के बीच आमार बांग्ला की माटी में वो जहर कहां से आ गया कि, मानुष ही मानुष का दुश्मन बन बैठा।
इन विचारों को कोई भी व्यक्तिगत न लें यह उस भीड़तंत्र पर मौजूं हैं जो प्रजातंत्र के नाम पर बड़े समूहों को उठाकर हैवानियत का नाच रचते हैं। कभी ये सब हमारे ही हिस्से थे।