कोई चिंगारी लाए, यहां तेल में भीगी बाती तो है
निष्पक्ष पत्रकारिता का दौर शुरू करेगी हृदयभूमि, वह जोश और जज्बा लिए पत्रकार आमंत्रित

हिन्दी के महान शायर दुष्यंत कुमार जी को प्रणाम सहित आज मेरा यह विचार है कि वह चिंगारी जलाने की हिम्मत कहां है।
– एक वो दौर था जब राजनीति, नेता और पत्रकारिता का, अब वो बीते जमाने की वे बातें हैं जो सभी के लिए किस्सागोई हो गए हैं। दोस्तों आज जमाना बदल गया है, और इसीके साथ बदल गए हैं देश, दुनिया, राजनीति और पत्रकारिता के वह आम मिजाज।

– एक वह दौर वह था जब सिर पर टोपी लगाए नेता आमजन की समस्याओं को जानने अकेले निकल पड़ते थे पैदल और हल कराने के लिए जूझ पड़ते थे हर अधिकारी से। वहीं खादी के कपड़े, पैरों में टायर की चप्पल पहने कंधे पर झोला लटकाए साथ में डायरी और पैन रखकर घूमते वह झोलाछाप पत्रकार भी अब नजर नहीं आते हैं, कभी जब उनकी लेखनी से अफसरशाही ही नहीं सत्ता के प्रतिष्ठान भी हिल जाते थे। मगर अब वह बात क्यों नहीं रही।
– मुझे याद आता है लोकनायक स्व.जय प्रकाश नारायण के जमाने का वह दौर जबकि सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे आला नेताओं को अपनी कुर्सी हिलती नजर आने लगी। तब हाईकोर्ट में चुनाव अपील खारिज होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में अपील कर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी पर कब्जा जमा लिया। इस दौर में ‘लोकनायक’ के आव्हान पर शुरू हुई ‘समग्र क्रांत’ की तैयारी से श्रीमती गांधी बुरी तरह घबरा गईं और उन्होंने 25 जून 1975 में ईमर्जेंसी लगाकर पूरे सत्ता प्रतिष्ठान के सभी अंगों पर एकतरफा कब्जा कर लिया था।
– यह वो जमाना था जब सत्ता की मलाई चाटने हेतु अनेक चाटुकार इनके तलुए चाटने लगे थे। तब विपक्ष में चंद नेता और कुछ लोग बचे थे जो सभी कुर्बानियों के लिए तैयार थे। हां तब लगाई गई प्रेस सेंशरशिप (यानी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम) दौरान व्यावसायिकता के लोभी जिन अखबार मालिकों को बैठने का कहा जाता था, वे उनके सामने औंधे मुंह लेट जाते थे।
तब सेंसरशिप लागु होने पर अकेले श्री रामनाथ जी गोयनका साहब के अखबार इंडियन एक्सप्रेस
ने अपने घुटने नहीं टेके (संभवतः कुछ और भी होंगे)। बल्कि सेंशरशिप लागू होने के दिन गोयनका जी के अखबार ने अपने संपादकीय काॅलम को बिना कुछ लिखे खाली रखकर, सबसे नीचे दो लाईन लिखी। आज से देश में प्रेस सेंशरशिप लागू हो चुकी है। बताना जरूरी है कि खोजी पत्रकारिता के मामले में इस अखबार का नाम अन्यों के साथ बड़े सम्मान से लिया जाता है।
– इस दौर में हुक्मरानों के इशारे पर एक-एक कर सबको जेल में डाल दिया। तब के ऐसे त्यागी नेता अब सत्ता के उच्च ठिकानों में हैं कुछ शायद अब नहीं भी हैं।
मगर ऐसा संघर्षशील विपक्ष देश में आज के परिदृश्य में दूर-दूर तक नजर नहीं आता। जेल में रहकर चुनाव लड़कर बड़े-भारी अंतर से जीतने वाले क्रांतिकारी नेता स्व. जार्ज फर्नांडिस और अन्य सब अतीत और इतिहास की बातें बन गए हैं।
– तब का एक दौर यह भी याद आता है कि नई दुनिया में छपी श्रद्धेय राहुल बारपुते की संपादकीय और पत्रकार राजेंद्र माथुर की मीमांसा पढ़कर मंत्रियों के विभाग ही नहीं बल्कि मंत्री भी बदल जाते थे। नवभारत टाइम्स में नित्य छपने वाला आरके लक्ष्मण का वो आम आदमी वाला कार्टून अब व्यवसायिक पत्रकारिता के दौर में न जाने कहां खो गया है।
आज अमावस्या की इस अंधेरी रात में उजाले के लिए एक दीपक *हृदयभूमि* हम जलाना चाहते हैं। बकौल दुष्यंत कुमार जी –
एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों, इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है
– प्रदीप शर्मा
संपादक हृदयभूमि
