प्रदीप शर्मा संपादक।
भारतवर्ष के लोकतंत्र में चारों ओर चौथे स्तंभ की बड़ी दुहाई दी जाती है। कभी सोचा है हमारे संविधान में विधायिका (नियम कानून निर्माण), कार्यपालिका (नियम कानून लागू करने वाली व्यवस्था) और न्यायपालिका (जहां सभी न्याय मांगने जाते हैं) तो हैं, मगर इस पूरे सिस्टम में चौथे स्तंभ मीडिया की कोई गुंजाइश है क्या।
बावजूद इसके देश का हर नागरिक इन तीनों स्तंभ से निराश होने के बाद इसी चौथे स्तंभ की शरण में आता है। और…
– यहां से उठी आवाज जब संपूर्ण देश में गूंजती है तो सरकारें भी गिर जाती हैं।
याद करें खा-लिस्थान वाले उग्र आंदोलन के खिलाफ लगातार लिखने पर किस तरह संपादक के दफ्तर में घुसकर ठांय-ठांय कर हत्या की गई थी। तब भयभीत किसी भी बंदे ने इस अखबार के संपादक की कुर्सी संभालने की हिम्मत नहीं की। तब संपादक के बेटे ने सामने आकर अखबार संभाला और आतंकियों के खिलाफ पिता के मिशन से कोई समझौता नहीं किया।
नतीजा क्या हुआ उन्हें भी दफ्तर में गोलियों से मार डाला।
– अब कौन आएगा पंजाब केसर की कमान संभालने तो खालिस्तान के खिलाफ हिमायत करने वाले पूरे देश से एक भी बंदा सामने नहीं आया।
तब अपने पितामह और पिताश्री दोनों के बलिदान पश्चात पोते अश्विनी कुमार ने अल्पायु में कुर्सी संभाली और बिना किसी कांप्रोमाईज के इस केसरी को जिंदा रखा।
– यहां पर मैं किसी अखबार की तारीफ करने नहीं कर रहा बल्कि पाठकों को बताना चाहता हूं कि देश और विदेश में ऐसी अनेक मिसालें हैं। जहां मीडिया जगत के नुमाइंदों ने देश व समाज के हितार्थ मीडिया जगत के नुमाइंदों ने देश व समाज के हितार्थ कुर्बानी दी।
– याद करें अमेरिका में वाटरगेट कांड का खुलासा करने पर वहां की सरकार गिरी थी। और इसकी सभी दुहाई देते हैं।
– मगर हमारे देश में कोई इसे याद नहीं करता कि संचार मामले में इंडिया टुडे द्वारा घोटाले का पर्दाफाश करने पर केंद्र सरकार गिर गई थी।
– वहीं इंडियन एक्सप्रेस द्वारा बोफोर्स खरीदी में अवैध दलाली का खुलासा कर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया था। इस कारण दबाव में या अन्य कारण से संपादक अरुण शौरी को कुर्सी छोड़नी पड़ी यह भी सबको पता है।
– ज्यादा दूर न जाएं हमारे हरदा, खंडवा और बैतूल में ही पत्रकारों की हत्या माफियाओं ने कर दी और कोई उफ नहीं बोला। ऐसे दिवंगत पत्रकारों की मैयत में भी कोई नहीं गया।
– बहरहाल कलम की ताकत से भूचाल लाने वाले इन पत्रकारों से व्यवस्था के इन ठेकेदारों को खौफ क्यों है। जबकि यह मीडिया की सांवैधानिक ताकत नहीं बल्कि वैचारिक बल था, और है जिससे आज देश के समाज में इसे सम्मान और दुलार मिला है। मगर आएं और सोचें कि ये पत्रकार किस तरह जीवनयापन करते हैं।
इसे जानने के लिए पढ़ें हमारी अगली कड़ी
तब तक के लिए नमस्कार